छन्द किसे कहते हैं उदाहरण सहित, चरण, मात्रा, लघु, गुरु के नियम

छन्द किसे कहते हैं उदाहरण सहित, सवैया छंद किसे कहते हैं. छंद कितने प्रकार के होते हैं, चरण, मात्रा, लघु, गुरु के नियम. इस आर्टिकल में छंद की पूरी जानकारी दी गई है.

छन्द किसे कहते हैं

छन्द की परिभाषा – वाक्य रचना में जब वर्णों अथवा मात्राओं की संख्या, चरण, क्रम, गति, यति, विराम और तुक आदि का नियम माना जाता है, तो वह रचना छन्द कहलाती है। छन्द एक प्रकार से वह साँचा है जिसमें कवि अपने शब्दों को ढाल कर कविता का रूप देता है। पिंगल (छन्द शास्त्र) में छन्दों के भेद, मात्रा, वर्ण, यति, गति, चरण, गण, छन्द का रस, भाव आदि से सम्बन्धित विषयों का विवेचन किया जाता है।

छन्द शास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास

हिन्दुओं के आदिग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ के पुरुष सूक्त के नवम् मंत्र में छन्द की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है। अतः छन्द अपौरुषमेय है। ‘सामवेद‘ तो एक प्रकार से ‘छन्दशास्त्र’ ही है। उसमें अनेक छन्दों का विस्तृत वर्णन है।

वेद के छ: अंगों में छन्द भी एक है। छन्द को वेद-पुरुष का चरण भी माना गया है-“छन्द पादौतु वेदस्य।” लौकिक साहित्य के आदि कवि वाल्मीकि माने गए हैं। अतः वेदों के अतिरिक्त छन्दों का आविर्भाव वाल्मीकि के पश्चात् हुआ होगा क्योंकि उन्होंने अपने ‘पिंगल’ नामक ग्रन्थ में वैदिक तथा लौकिक दोनों प्रकार के छन्दों का व्यापक एवं शास्त्रीय विवेचन किया है।

महर्षि पिंगल को संस्कृत साहित्य में छन्दशास्त्र का सर्वप्रथम आचार्य माना जाता है। उनका पिंगल शास्त्र इतना प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हुआ कि परवर्ती आचार्यों ने पिंगल को छन्द का पर्याय मान लिया। हिन्दी साहित्य के आचार्यों ने भी छन्दशास्त्र को ही पिंगल का नाम दिया।

छन्द का महत्व

छन्द और कविता का गहरा सम्बन्ध है। कविता किसी न किसी छन्द में लिखी जाती है। छन्द की महत्ता अलंकार तथा रस से अधिक है। छंद वह साँचा है जिसमें कविता रूपी आकृति को ढाला जाता है। इसमें छन्दशास्त्र के नियमों का पालन अनिवार्य है। संस्कृत के आचार्यों के विचार में छन्द भंग का दोष असह्य था।

1927 में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का कविता संग्रह ‘गीतिका’ प्रकाशित हुआ। निराला ने यह तर्क दिया कि कवि का प्रत्येक भाव समान नहीं होता तथा प्रत्येक भाव को समान वर्ण एवं मात्राओं में व्यक्त करना सम्भव नहीं। अत: कवि या तो शब्दों को तोड़ेगा-मरोड़ेगा या अपने (भरती के) शब्दों का प्रयोग करेगा।

भावों या अंश को छोड़ने को विवश होगा। इस प्रकार कवि का पहला भाव यदि 14 शब्दों में प्रकट होगा तो दूसरा 25 शब्द भी ले सकता है। अतः इन दोनों ही दशाओं में कवि को भावों का गला घोंटना पड़ेगा या अनावश्यक प्रत्यय आदि का प्रयोग करना होगा। अतः इन सभी बंधनों को अमान्य घोषित करते हुए निराला ने कहा-

आज हो गए ढीले सारे बंधन,

मुक्त हो गए प्राण

नव जीवन की प्रबल उमंग

जा रही मिलने प्रीतम से

पार कर सीमा,

प्रियतम असीम के संग”

तत्कालीन परम्पराप्रिय पाठकों ने निराला के छन्दों की आलोचना करते हुए उन्हें ‘रबड़ छन्द’ या केंचुआ’ कहा। बाद में अधिकतर कवि मुक्त छन्द में कविता करने लगे। प्रयोगवादी कवियों ने सभी प्राचीन तत्वों का बहिष्कार किया। सभी ने मुक्त छन्द को ही स्वीकार कर लिया।

आज प्रायः सभी कवि मुक्त छन्द में ही कविता लिखते हैं। वर्तमान समय में मुक्त छंद कविता ही मुख्यधारा में है। कविता लिखने के लिये अब छंद अपरिहार्य नहीं रह गये हैं।

किन्तु लोक रुचि आज भी परम्परागत तुकांत छन्दों के पक्ष में है। लोकगीतों में आज भी मुक्त छन्द को कोई स्थान नहीं मिला। इस प्रकार छन्द बन्धनों का विरोध करके निराला ने कविता के क्षेत्र में क्रांति कर दी। परिणाम यह हुआ कि कविता गद्य के निकट ही आ गई।

इस प्रकार अब कविता में लय और गेयता का कोई महत्व नहीं। फिर भी छंदों का हिन्दी साहित्य में अपना महत्व है। भले ही वर्तमान समय में ये प्रयोग में न लाये जाते हों, फिर भी भक्तिकाल, रीतिकाल तथा उसके बाद के समय के कवियों को समझने के लिये तथा उनकी काव्यगत क्षमताओं की थाह लेने के लिये छंदों का गूढ़ अध्ययन आवश्यक तथा अपरिहार्य है।

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छन्द के अंग

कविता में छन्द योजना की प्रक्रिया जटिल है। इसकी विशेषताओं को जानने से पूर्व विभिन्न अंगों का ज्ञान आवश्यक है। ‘छन्द’ के अंग निम्नलिखित हैं-

  1. पाद
  2. मात्रा और वर्ण
  3. संख्या और क्रम
  4. लघु और गुरु
  5. गण
  6. गति
  7. यति
  8. तुक

पाद या चरण

छन्द शास्त्र में पाद को चरण भी कहते हैं। यह छन्द का चौथा भाग होता है। छन्द में प्राय: चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में मात्रा क्रमानुसार निश्चित होती है। कुछ छन्द चार से अधिक चरण भी होते हैं। यह पाद ‘सम‘ या ‘विषम‘ दो प्रकार के होते हैं। प्रायः प्रथम और तृतीय चरण सम होते हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ विषम चरण होते हैं।

मात्रा और वर्ण

स्वर दो प्रकार के होते हैं-ह्रस्व और दीर्घ-उच्चारण के समय दीर्घ स्वर में, ह्रस्व की अपेक्षा अधिक समय लगता है। छन्दशास्त्र में यही मात्रा कहलाती है। यहाँ स्वरों के साथ व्यंजनों का भी समावेश होता है किन्तु व्यंजनों की मात्रा नहीं गिनी जाती। जैसे-‘स्थ्य’ में ‘स्’, ‘थ्’ तथा ‘य’ में तीन व्यंजन हैं और ‘अ’ स्वर है।

यहाँ ‘अ’ के कारण स्थ्य की एक ही मात्रा गिनी जाती है। इस प्रकार ‘कमल’ में तीन मात्राएँ मानी जायेंगी। दीर्घ स्वर वाले वर्षों की दो मात्राएँ होती हैं-ताजा में चार मात्राएँ होती हैं।

वर्णों को अक्षर कहते हैं। मात्राओं के कारण ये भी ह्रस्व और दीर्घ होते हैं। वर्णों की गणना में दीर्घ वर्ण को भी एक ही वर्ण माना जाता है। जैसे-राजा में दो वर्ण किन्तु मात्राएँ चार हैं। जैसे-‘गुन-अवगुन जानत सब कोई‘ इसमें 16 मात्राएँ तथा 13 वर्ण हैं।

लघु और गुरु के नियम

(अ) अ, इ, उ इन ह्रस्व स्वरों तथा इनसे युक्त एक व्यंजन को लघु समझा जाता है। जैसे-‘कलम’ इसमें वर्ण लघु हैं। इस शब्द का मात्रा चिह्न हुआ-।।।

(ब) चन्द्र बिन्दु वाले ह्रस्व शब्द को भी लघु कहते हैं-जैसे हैं।

गुरु(i) आ, ई, ऊ और ऋ और दीर्घ मात्राओं से युक्त व्यंजन गुरु होते हैं। जैसे-बाजा, दीदी, मामी आदि। इनका मात्रा चिह्न हुआ-ऽऽ।

(ii) ए, ऐ, ओ, औ आदि संयुक्त स्वर और इनसे मिले व्यंजन भी गुरु होते हैं। जैसे-कैसा, ओला, भोला, औरत, नौका, सोटा, लोटा आदि।

(iii) अनुस्वार युक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे-संसार किन्तु चन्द्र बिन्दु वाले वर्ण गुरु नहीं होते।

(iv) विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे-स्वतः, दुःख – ।ऽ, ऽ।।

(v) संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता है। जैसे-सत्य, भक्त, तुष्ट, कर्म, अष्ट, मर्म इत्यादि (ऽ।।;

संख्या क्रम तथा गण

मात्राओं और वर्णों की गणना को संख्या और लघु गुरु के स्थान निर्धारण को कम कहते हैं। मात्राओं तथा वर्णों की संख्या को, सुविधा के लिए तीन मात्राओं वाला एक गण मान लिया जाता है। इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वार्णिक छन्दों में होता है। अत: वार्णिक गण भी कहते हैं। इन गणों की संख्या 8 है। इनके उलट-फेर से ही छन्दों की रचना होती है। इनके नाम, लक्षण तथा चिह्न निम्नलिखित हैं-

गण वर्ण क्रम चिह्न उदाहरण प्रभाव
यगण आदि, मध्य , अन्त गुरु ।ऽऽ कटोरा, चटोरा अशुभ
मगण आदि गुरु, मध्य गुरु, अंत लघु ऽऽऽ आबादी, चालाकी शुभ
तगण आदि गुरु, मध्य लघु, अंत गुरु ऽऽ। लाचार, बेकार अशुभ
रगण आदि गुरु, मध्य लघु, अंत गुरु ऽ।ऽ वीरता, चीरना अशुभ
जगण आदि लघु, मध्य गुरु, ।ऽ। प्रभाव, विभाव शुभ
गगण आदि गुरु, मध्य लघु, अंत लघु ऽ।। नीरज, धीरज शुभ
नगण आदि, मध्य , अन्त लघु ।।। कमल, चमन शुभ
सगण आदि लघु, मध्य लघु, अंत गुरु ।।ऽ वसुधा, चमन अशुभ

काव्य या छन्द के आदि में ‘अगण‘ (अशुभ गण) नहीं पड़ना चाहिए। शायद कठिन उच्चारण या लय दग्ध होने के कारण ही कुछ गणों को ‘अशुभ‘ कहा गया है। गणों को स्मरण करने की सुविधा के लिए एक सूत्र बनाया गया है- ‘यमाताराजमानसलगा:’-इस सूत्र के प्रथम 8 वर्णों में आठ गणों के नाम आ जाते हैं। अंतिम दो वर्ण (ल और ग) दशाक्षर तथा उससे अगले दो अक्षर सूत्र से लेना होगा। जैसे-सगण (।ऽऽ) तथा और लेने होंगे। जैसे-सुदा। यह वर्णन केवल वर्गों में होता है, मात्रिक छन्द इससे मुक्त होते हैं।

यति, गति और लघु

छन्द शास्त्र में यति का अर्थ विराम या विश्राम तथा गति का अर्थ प्रवाह तथा तुक का अर्थ अन्त्य वर्णों की आवृति है।

सामान्यतः प्रत्येक छन्द में चार चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण के अंत में यति होती है। कभी-कभी एक पाद में एक से अधिक यतियाँ भी होती है। छंद को संगीत के समीप लाती है, उसकी गति जो चरणों में लय भर कर उसमें प्रवाह उत्पन्न करती है। गति का कोई खास नियम नहीं है। लेकिन यदि छंद के चरणों की मात्राएँ ठीक हैं और शब्दों का क्रम ठीक है तो गति स्वयं ही उत्पन्न हो जाएगी. चरनांत में इस आवृति को तुक कहते हैं. सामान्यतः पांच मात्राओं की तुक उत्तम मानी जाती है.  

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