अर्थालंकार की संख्या , अर्थालंकार के उदाहरण , अर्थालंकार कितने प्रकार के होते हैं. शब्दालंकार और अर्थालंकार की परिभाषा. अर्थालंकार किसे कहते हैं Class 9 , र्थालंकार के कितने भेद होते हैं Class 8 , अर्थालंकार में किस की प्रधानता होती है.
अर्थालंकार की संख्या
अर्थालंकारों को निम्नांकित श्रेणियों में विभक्त किया गया है-
- साम्य मूलक
- विरोध मूलक
- श्रृंखला मूलक
- न्याय मूलक
- गूढार्थ प्रतीति मूलक
साम्य मूलक
“इस वर्ग के अलंकारों में दो वस्तुओं में समता की भावनाओं को लेकर किसी उक्ति से चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। इसे सादृश्य या साधन्य मूलक भी कहते हैं।” अधिकांश अलंकार इसी वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। जैसे – रूपक, उल्लेख, संदेह, भ्रांति, उपमा, उत्प्रेक्षा, अपन्हुति, प्रतीप, परिणाम, व्यतिरेक, दृष्टांत, निदर्शना, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगिता, दीपक, सहोक्ति, विनोक्ति, दीपकावृति, अन्वय, स्मरण, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, ब्याज स्तुति, ब्याज निन्दा, आक्षेप, पर्यायोक्ति, समसोक्ति, परिकर, परिरांकुर और श्लेष।
विरोध मूलक
इस वर्ग के अलंकारों में दो वस्तुओं के कार्य और कारण में विच्छेद होने की संभावना से आपस में विरोध पैदा होता है। इस वर्ग में निम्नलिखित अलंकार हैं-विरोधाभास, विभावना, असंगति, विषम, विचित्र, अन्योन्य, ब्याघात तथा विशेषोक्ति।
श्रृंखला मूलक
इस वर्ग में दो या दो से अधिक पदार्थों का क्रम से वर्णन होता है और ये श्रृंखला के समान परस्पर बँधे रहते हैं। जैसे – कारण, माला, एकावली, माला दीपक और सार आदि अलंकार प्रमुख हैं।
न्याय मूलक
इस अलंकार में तर्क, लोक प्रमाण या दृष्टांत से युक्त वाक्य द्वारा रोचकता उत्पन्न की जाती है। जैसे- काव्य लिंग, विकस्वर, प्रौढ़ोक्ति, छेकोक्ति, प्रतिबंध, निरूक्ति, अनुमान, दीपक, समाधि आदि अलंकार आते हैं।
गूढार्थ प्रतीतिमूलक
इस वर्ग के अलंकारों में व्यंग्य से छिपाकर या उल्टी बातें कही जाती हैं। मुद्रा, सूक्ष्म विहित, व्याजोक्ति, गूढोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, अत्युक्ति आदि अलंकार इस वर्ग में आते हैं।
अर्थालंकार कितने प्रकार के होते हैं ?
अर्थालंकार निम्न प्रकार के होते हैं-
- उपमा अलंकार
- रूपक अलंकार
- उत्प्रेक्षा अलंकार
- उपमेयोपमा अलंकार
- अतिश्योक्ति अलंकार
- प्रतिवस्तुप्मा अलंकार
- दृष्टांत अलंकार
- अर्थान्तरन्यास अलंकार
- काव्यलिंग अलंकार
- उल्लेख अलंकार
- विरोधाभास अलंकार
- स्वभावोक्ति अलंकार
- अनन्वय अलंकार
- प्रतीप अलंकार
- व्यतिरेक अलंकार
- स्मरण अलंकार
- अपन्हुति अलंकार
- भ्रांतिमान अलंकार
- सन्देह अलंकार
उपमा अलंकार किसे कहते हैं
जब दो वस्तुओं में समान गुण या विशेषता का आभास कर उनकी तुलना की जाती है तब वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उपमा अलंकार के अंग हैं
उपमा अलंकार के निम्न चार अंग हैं.
- उपमेय
- उपमान
- समता वाचक शब्द
- अर्थ
(i) उपमेय – जिसका वर्णन हो या उपमा दी जाए।
(ii) उपमान – जिससे तुलना की जाए।
(iii) समानता वाचक शब्द – जैसे-ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाईं इत्यादि।
(iv) समान धर्म – उपमेय और उपमान के समान धर्म को व्यक्त करने वाला शब्द।
उदाहरण -“बढ़ते नद सा वह लहर गया”,
यहाँ राणा प्रताप का घोड़ा चेतक (वह) उपमेय है, बढ़ता हुआ नद (उपमान) सा (समानता वाचक शब्द या पद) लहर गया (समान धर्म)।
रूपक अलंकार की परिभाषा उदाहरण
-जहाँ उपमान और उपमेय के भेद को समाप्त कर उन्हें एक कर दिया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है। इसके लिए निम्न बातों की आवश्यकता है-
(i) उपमेय को उपमान का रूप देना,
(ii) वाचक शब्द का लोप,
(iii) उपमेय का भी साथ में वर्णन ।
उदाहरण – उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विगसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन ,ग।।
यहाँ उदय गिरि को मंच का, रघुवर (श्रीराम) को उगते हुए सूर्य (बाल-पतंग) का, संतों को सरोज (कमल) तथा लोचन (नेत्रों) को भंग (भँवरे) का रूप देने के कारण रूपक अलंकार है।
उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित
जहाँ प्रस्तुत उपमेय में कल्पित उपमान की संभावना दिखाई देती है, उसे उत्प्रेक्षा कहते हैं।” उत्प्रेक्षा का अर्थ है किसी वस्तु को संभावित रूप में देखना। यहाँ न तो पूर्ण संभावना होती है और न पूर्ण संदेह।
उदाहरण–
(i) ‘मुख मानो चन्द्रमा है।’
(ii) ‘सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलौने गात।
मनहु नील मणि शैल पर, आतप पर्यो प्रभात।’
उपमेयोपमा उदाहरण सहित
जहाँ उपमेय और उपमान को आपस में उपमान और उपमेय बनाने का प्रयत्न किया जाय, वहाँ उपमेयोपमा अलंकार होता है। इसमें दो प्रकार की भिन्न उपमाएँ हैं। उदाहरण -‘राम के समान शम्भु, शम्भु सम राम हैं’
अतिशयोक्ति अलंकार किसे कहते हैं उदाहरण सहित
जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर किया जाए वहाँ अतिश्योक्ति अलंकार होता है।” भाव यह है कि जहाँ उपमेय को उपमान पूरी तरह आत्मसात कर ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण–
“जो छवि सुधा पयोनिधि होई, परम रूप मय कच्छप सोई।
सोभा रजु मंदर शृंगार, मथै पानि पंकज निज मारू।
एहि विधि उपजैलच्छि जब, सुन्दरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कवि, कहहि सीय अनुकूल।।’
प्रतिवस्तूपमा -“जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समान धर्म दो भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाय वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।
“तिनहि सोहाई न अवध बधावा,
चोरहि चाँदनि राति न माहा।।”
दृष्टांत अलंकार – “जहाँ उपमेय और उपमान तथा उनके साधारण धर्मों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब का भाव हो, वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है। जैसे-
‘सुख-दुःख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरन।
फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि में ओझल हो घन।”
यहाँ ‘सुख-दुःख’ तथा ‘शशि’ और ‘घन’ में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है।
अर्थान्तरन्यास अलंकार – “जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाय तो अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।
“कृष्ण ने बचाया, इन्द्र के प्रकोप से था।
करते महान जन, काम कौन से नहीं।”
काव्यलिंग अलंकार – “किसी तर्क से समर्थित बात को काव्य लिंग अलंकार कहते हैं।
“कनक-कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
उहि खाए बौरात नर, इहि पाए बौराय।।”
उल्लेख अलंकार – “जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाये, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है।
“तू रूप है किरण में, सौन्दर्य है सुमन में।
विरोधाभास अलंकार -“जहाँ विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास किया जाये, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है। उदाहरण-
“बैन सुन्या जबतें मधुर, तब ते सुनत न बैन।।”
स्वभायोक्ति अलंकार -“किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं।” यहाँ सादगी में चमत्कार होता है।
“चितवनि मोरे भाय की, गोरे मुख मुसकानि।
लगनि लटकि आली गरे, चित खटकति नित आनि।।”
अनन्वय अलंकार – “जब उपमेय की समता में कोई उपमान नहीं आता और कहा जाता है कि उसके समान वही है, तब अनन्वय अलंकार होता है।
“यद्यपि अति आरत-मारत है,
भारत के सम भारत है।
प्रतीप अलंकार – इसका अर्थ है उल्टा। उपमा के अंगों में उलट-फेर अर्थात उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है। इसी कारण इसे प्रतीप कहते हैं-‘नेत्र के समान कमल है।’
व्यतिरेक अलंकार – “जब उपमेय को उपमान से बढ़ाकर अथवा उपमान को उपमेय से घटाकर वर्णन किया जाये, तब व्यतिरेक अलंकार होता है।
“सिय मुख सरद कमल किमि कहि जाय।
निसि मलिन वह, निसिदिन यह बिगसाय।’
स्मरण अलंकार – कोई वस्तु पुनः देखने, सुनने या चिन्तन करने पर वह वस्तु या घटना याद आ जाती है तब वहाँ स्मरण अलंकार होता है।
“सायं प्रात: विविध स्वर से कूजते हैं पखेरू,
प्यारी-प्यारी मधुर ध्वनियाँ मत्त हो हैं सुनाते।
मैं पाती हूँ मधुर ध्वनि में कूजते खगों के,
मीठी तानें परमप्रिय की मोहिनी वंशिका को।”
अपन्हुति अलंकार – इसका अर्थ है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर (निषेध) उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है, तब अपन्हुति अलंकार होता है।
“सुनहु नाथ रघुवीर कृपाला, बन्धु न होय मोर यह काला।’
भ्रान्तिमान अलंकार – “जब उपमेय में उपमान का आभास हो तब भ्रम या भ्रांतिमान अलंकार होता है।”
‘नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से
देखता ही रह गया शुक मौन है,
सोचता है अन्य शुक यह कौन है।”
सन्देह अलंकार – “जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय हैं या नहीं। जब यह दुविधा बनी रहती है, तब संदेह अलंकार होता है।
“बाल धी विसाल विकराल ज्वाल-जाल मानौ,
लंक लीलिवे को काल रसना पसारी है।”