व्याख्या किसे कहते हैं, व्याख्या कैसे करें, व्याख्या करते समय ध्यान देने योग्य बातें

व्याख्या किसे कहते हैं 

व्याख्या न भावार्थ है और न आशय। यह इन दोनों से भिन्न है। व्याख्या किसी भाव या विचार का विस्तार या विवेचन है। इसमें परीक्षार्थी को अपने अध्ययन, मनन और चिन्तन के प्रदर्शन की पूरी स्वतंत्रता रहती है।

व्याख्या कैसे करें

किसी भी व्याख्या का प्रसंग एक अनिवार्य अंग होता है। अतः प्रसंग को व्याख्या करने से पूर्व लिखना नितांत आवश्यक है। किन्तु यह स्मरण रहे कि प्रसंग संक्षेप में होना चाहिये। इसमें किसी भी अप्रासंगिक बात को स्थान नहीं मिलना चाहिये।

परीक्षार्थी को यह सदैव याद रखना चाहिये कि इसमें अनावश्यक तत्वों का मिश्रण न हो जिससे यह निष्प्रभावी प्रतीत होने लगे। प्रसंग अपने मौलिक विषय पर आधारित होना चाहिये। व्याख्या में आधारभूत भावों और चिन्ता का पूर्णतः सन्तुलन होना चाहिये।

वास्तव में व्याख्या किसी भी परीक्षार्थी के मौलिक विचारों का प्रतिबिम्ब होती है। इसमें गुण और दोष के आधार पर अपने विचार रखने चाहिये। यदि कोई अंश दोषपूर्ण हो तो इसे रेखांकित करना चाहिये।

अन्ततः दिये पद्यांश को कठिन भाषा से सरलतम भाषा में परिवर्तित कर देना चाहिये।

व्याख्या करते समय ध्यान देने योग्य बातें

व्याख्या करते समय निम्न बातों को दृष्टिगत रखना चाहिये।

  1. व्याख्या में प्रसंग निर्देश का वह स्थान है जैसे मानव शरीर में सिर का।
  2. यह तर्कसंगत, सौन्दर्यपूर्ण और सीमित शब्दों में हो।
  3. व्याख्या में अपनी मौलिक शैली का प्रयोग करना चाहिये।
  4. मूल के सन्देश को रेखांकित कर देना चाहिये।
  5. मूल के विचारों को गुण-दोष की कसौटी पर कसना चाहिये।

प्रस्तुत पद्यांश की प्रसंग सहित व्याख्या कीजिये:

रहिमन धागा प्रेम का, मति तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ पड़ जाय।

उत्तर – प्रस्तुत पद्यांश “रहीम के दोहे” नामक शीर्षक से अवतरित है। इसके रचयिता अब्दुर्रहीम खानखाना उर्फ रहीम  है। इस दोहे के माध्यम से रहीम ने मानव जीवन की सच्चाई का उद्घाटन किया है कि कोई भी सम्बन्ध जब तक अपने मौलिक रूप में चलता है तो वह सुखदाई होता है और जब उसमें स्वार्थ स्वरूप कोई दुर्गुण उत्पन्न हो जाता है तो उससे कोई सुख प्राप्त नहीं होता है।

व्याख्या – कवि रहीम कहना चाहते हैं कि कोई भी रिश्ता वास्तव में समर्पण भाव से ही चलाया जा सकता है। क्योंकि प्रेम ही समर्पण का आधार होता है। यदि हम उसमें किसी भी प्रकार की स्वार्थसिद्धि की भावना रखते हैं तो स्वार्थसिद्धि उस रिश्ते की आत्मीयता पर बड़ा आघात करती है और वह सम्बन्ध रूपी धागा टूट जाता है और फिर दुबारा नहीं जुड़ता। यदि जुड़ जाये तो उसमें उतना विश्वास और आकर्षण नहीं रहता है जितना कि पहले था।

विवेचन – यहाँ यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हमें रिश्ते की पवित्रता को अक्षुण्य बनाये रखना चाहिये और अपने लालच के कारण इस सम्बन्ध रूपी महल को ढहाना नहीं चाहिये।

इस अवतरण की सप्रसंग व्याख्या कीजिये।

बृच्छ कबहु नहिं फल भखें, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर।।

प्रसंग – प्रस्तुत दोहा “नीति के दोहे” नामक शीर्षक से लिया गया है। इसके रचयिता कबीरदास हैं। इस दोहे के माध्यम से कवि ने महापुरुषों के जीवन को जनसामान्य के लिये हितकारी बताया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि जिस प्रकार पेड़ स्वयं धूप, तूफान और बरसात में खड़े रहते हैं और किसी भी कष्ट को बयान नहीं करते और फल आने पर वे स्वयं न खाकर दूसरों (लोगों) को देते हैं। नदी अपना पानी स्वयं न पीकर उसका प्रयोग जनकल्याण के लिये करती है जिससे खेती की सिंचाई होती है। फलतः लोगों के लिये अन्न पैदा होता है। उसी प्रकार महापुरुष भी जनता के हित व कल्याण के लिये अनेक शारीरिक कष्टों को सहते हुए भी खुश रहते हैं। किसी से कोई शिकायत नहीं करते हैं।

विवेचन – कवि का संकेत यहाँ यह है कि महापुरुषों का दृष्टिकोण स्वकेन्द्रित न होकर सर्वजन केन्द्रित होता है। उन्हें जनता की भलाई और सुख अपने दु:खों और कष्टों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।

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