हिन्दी व्याकरण, व्याकरण किसे कहते हैं | Hindi Grammar

व्याकरण किसे कहते हैं

हिन्दी व्याकरण : भाषा का निर्माण वाक्यों से होता है, वाक्य शब्दों से बनते हैं तथा शब्द मूल-ध्वनियों से निर्मित हैं। व्याकरण में इन्हीं अंग-प्रत्यंगों का अध्ययन एवं विवेचन होता है। अत: व्याकरण पूर्णत: भाषा पर आश्रित होता है। श्री कामता प्रसाद गुरु के विचार में, “जिस शास्त्र में शब्दों के शुद्ध रूप और प्रयोग के नियमों का वर्णन होता है, उसे व्याकरण कहते हैं।

(Hindi Grammar) व्याकरण के नियम प्रायः लिखित भाषा को लक्ष्य मानकर निश्चित किए जाते हैं, क्योंकि बोलने की भाषा की अपेक्षा लिखित भाषा में शब्दों का प्रयोग अधिक सावधानी के साथ किया जाता है। व्याकरण शब्द तीन शब्दों- वि + आ + करण’ शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है, ‘भली-भाँति समझना‘। अत: व्याकरण का सम्बन्ध शिष्ट जनों द्वारा स्वीकृत शब्दों के रूप और प्रयोग सम्बन्धी नियमों से होता है।

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हिन्दी व्याकरण का मानव से सम्बन्ध

विज्ञान की प्रकृति के विकारों के समान भाषा का सम्बन्ध भी व्याकरण से उतना ही गहरा होता है। जिस प्रकार कोई भी प्राकृतिक घटना नियम विरुद्ध नहीं होती, उसी प्रकार भाषा का प्रयोग भी नियम विरुद्ध नहीं हो सकता। वैयाकरण इन्हीं नियमों का ज्ञान करके और नियम निश्चित करते हैं।

व्याकरण में भाषा की रचना, शब्दों की उत्पत्ति और विचारों की अभिव्यक्ति से सम्बन्धित उनके शुद्ध प्रयोग बताए जाते हैं, जिनकी सहायता से हम भाषा सम्बन्धी नियम जान सकते हैं तथा भाषा सम्बन्धी भूलों को सुधार सकते हैं। व्याकरण द्वारा भाषा के पूर्ण ज्ञान के साथ ही विदेशी भाषा सीखने में भी सहायता मिलती है।

व्याकरण के स्वरूप के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह कला है या विज्ञान । शास्त्र द्वारा जहाँ हम किसी विषय का व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करते हैं, वहीं कला से उस ज्ञान का प्रयोग सीखते हैं।

व्याकरण द्वारा विज्ञान के रूप में उन नियमों का ज्ञान प्राप्त करते हैं जिनका सम्बन्ध भाषा के शुद्ध प्रयोग से होता है, जबकि कला के रूप में हम व्याकरण द्वारा भाषा के दैनिक प्रयोग में उन नियमों का प्रयोग करते हैं। अत: व्याकरण कला और विज्ञान दोनों हैं।

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हिन्दी व्याकरण की सीमा

व्याकरण भाषा के अधीन होता है तथा उसी पर निर्भर करता है। भाषा के अनुसार ही व्याकरण के नियमों में परिवर्तन होता रहता है। हमें यह भी समझना चाहिए कि व्याकरण भाषा को नियंत्रित करने के साथ ही नियम बनाकर भाषा के रूप को परिवर्तित भी करता है। भाषा का पहले व्यावहारिक जीवन में प्रयोग किया जाता है, उसके आधार पर व्याकरण के नियम बनाए जाते हैं।

व्याकरण के नियम होने से वर्षों पूर्व ही भाषा का जीवन में प्रचार था । व्याकरण के सहयोग से भाषा में शुद्धता आती है। इसका भाव यह नहीं कि व्याकरण के ज्ञान मात्र से भाषा का शुद्ध प्रयोग आ जाता है। दूसरी ओर इस ज्ञान के अभाव में व्यक्ति भाषा का शुद्ध लेखन या वाचन नहीं कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि व्याकरण का ज्ञान व्यक्ति के लिये भाषा को शुद्ध रूप में प्रयोग करने में सहायक है जिससे दूसरे व्यक्ति हमारी भाषा सरलता से समझ सकें।

व्याकरण के विभाग – भाषा सम्बन्धी शास्त्र होने के कारण व्याकरण में वाक्य की विवेचना तथा अध्ययन पर ध्यान दिया जाता है। यह स्पष्ट है कि वाक्य, भाषा का मुख्य आधार है, वह शब्दों से निर्मित है तथा शब्द, ध्वनियों से निर्मित होते हैं। अत: अध्ययन के विचार से व्याकरण के निम्नलिखित विभाग हैं-

  1. वर्ण विचार
  2. शब्द-साधन
  3. वाक्य-विन्यास।

(1) वर्ण विचार – इसमें वर्गों के आकार, उच्चारण और उसके संयोग द्वारा बनने वाले नियमों का उल्लेख है।

(II) शब्द साधन – इस विभाग में शब्दों के भेद, रूपांतर और उत्पत्ति सम्बन्धी वर्णन है।

(III) वाक्य विन्यास – इस विभाग में वाक्यों के अवयवों के पारस्परिक सम्बन्ध पर विचार किया जाता है। व्याकरण में गद्य की भाषा को विचार का विषय बनाया जाए अथवा पद्य को भी इसका आधार बनाया जाए, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार-विनिमय होना चाहिए। अधिकांश विद्वानों के मत में छंद, रस तथा अलंकार आदि साहित्य के अंग होते हैं। वे भाषा को रोचकता एवं प्रभावशीलता प्रदान करते हैं।

दूसरी ओर व्याकरण भाषा का शास्त्र है, अत: इसमें साहित्य सम्बन्धी नियमों को शामिल नहीं किया जाता है। मेरे विचार में व्याकरण, कला और विज्ञान दोनों होने के कारण इसमें उन सभी अवयवों को भी शामिल करना चाहिए जो भाषा को प्रभाव, माधुर्य एवं सुन्दरता प्रदान करता है। इसी प्रकार मुहावरे आदि को भी व्याकरण में शामिल किया जाना चाहिए।

भाषा की परिभाषा

हिन्दी व्याकरण का इतिहास

हिन्दी भाषा का पहला व्याकरण हेमचन्द्र ने 12वीं सदी में हिन्दी की पूर्ववर्ती, अपभ्रंश में लिखा। हिन्दी गद्य के उपेक्षित रहने के कारण हिन्दी के प्रथम व्याकरणाचार्य के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस कारण हिन्दी व्याकरण की रचना पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

अनुमान के अनुसार हिन्दी व्याकरण की रचना का कार्य अंग्रेज विद्वानों द्वारा आरम्भ किया गया। धर्म प्रचार और प्रशासन की दृष्टि से सफलता प्राप्ति के लिए हिन्दी भाषा का ज्ञान अंग्रेजों के लिये आवश्यक था। अत: उन्होंने हिन्दी व्याकरण की रचना हिन्दी की प्रकृति के अनुसार न करके अंग्रेजी भाषा के ढाँचे के आधार पर की। इसमें बोल-चाल की हिन्दी के शब्दों को उदाहरण के रूप में लिया।

हिन्दी व्याकरण का इतिहास लगभग 300 वर्ष पुराना है। अध्ययन की सुविधा के विचार से इसका विभाजन निम्नवत् हैं-

  1. आरम्भ काल (1676 से 1855 ई.)
  2. विकास काल (1855 से 1876 ई.)
  3. उत्थान काल (1876 से 1920)
  4. उत्कर्ष काल (1920 से 1944 ई.)
  5. नव चेतना काल (1944 से वर्तमान तक)

1. आरम्भ काल (1676 से 1855 ई.)

प्रसिद्ध वैयाकरण डा. जार्ज ग्रियर्सन तथा पुनीति कुमार चटर्जी के विचार में हिन्दी का प्राचीनतम व्याकरण हिन्दुस्तानी ग्रामर है। जिसकी रचना डच लेखक जोहन जुथुआ कैटेलर ने की थी। इस प्रकार हिन्दी का प्रथम व्याकरण 1698 में लिखा गया था। यह मत अनुचित है क्योंकि कैटेलर के भारत आगमन से पूर्व 1676 में ‘मिर्जा खाँ‘ ने बृजभाषा के व्याकरण की रचना की थी।

इस युग में हिन्दी व्याकरण लेखन का काल विदेशी लेखकों के हाथों में अधिक रहा। इस युग में उर्दू के भी कुछ व्याकरण लिखे गए जिनमें ‘हिन्दी कवायद’ (लल्लू लाल) प्रमुख हैं। इसके अनुसार हिन्दी और उर्दू, हिन्दुस्तानी की ही दो शैलियाँ हैं।

2. विकास काल (1855-1876 ई.)

यह भारतीय पुनर्जागरण का युग था। इस पुनर्जागरण का प्रभाव हिन्दी भाषा तथा उसके व्याकरण पर भी पड़ा। फलतः इस काल में हिन्दी व्याकरण लेखन में पर्याप्त तथा उचित प्रगति हुई। 1855 में श्रीलाल द्वारा विरचित ‘भाषा चन्द्रोदय‘ के साथ इस युग के हिन्दी व्याकरण लिखने की परम्परा आरम्भ हुई।

इस युग में अनेक देशी एवं विदेशी विद्वानों ने हिन्दी व्याकरण लिखे। इनमें भारतीय विद्वान पं. रामजसन, बाबू नवीन चन्द्र राय, शीतल प्रसाद गुप्त तथा पं. हरिगोपाल तथा विदेशी विद्वानों में पादरी एमरिंगटन प्रसिद्ध हैं। अधिकांश व्याकरण अंग्रेजी के अनुकरण पर लिखे गए किन्तु व्याकरण के स्वरूप में निखार एवं स्पष्टता का समावेश हुआ।

3. उत्थान काल (1876 से 1920 ई.)

1876 में कैलॉग ने हिन्दी व्याकरण पर पुस्तक लिखकर हिन्दी के विकास के लिये नये दरवाजे खोल दिये। कैलॉग ने अपने व्याकरण में ऐतिहासिक श्रोत एवं संकेतों से संकलित तुलनात्मक पद्धति को आधार बनाया। इसी आधार पर भाषा का विश्लेषण कर विवेचन आरम्भ किया। इस युग के व्याकरण में भाषा शास्त्रीय परम्परा चल पड़ी। यह रचना बहुत समय तक आदर्श रही। सन् 1819 में अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने हिन्दी कौमुदी की रचना की। जिसने कैलॉग को महत्व को कुछ कम किया।

4. उत्कर्ष काल (1920-1944 ई.)

कामता प्रसाद गुरु के द्वारा लिखित हिन्दी व्याकरण के साथ हिन्दी व्याकरण का उत्कर्ष काल आरम्भ होता है। गुरु ने किसी भी विदेशी विद्वान (कैलॉग) को महत्व नहीं दिया। उनके विचार में भाषा की शुद्धता के दृष्टिकोण से किसी भी विदेशी विद्वान को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। गुरु के व्याकरण ने कैलॉग के व्याकरण को भुला दिया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के माध्यम से हिन्दी में एकरूपता लाने के लिए व्याकरण सम्मत भाषा लिखने का आन्दोलन चलाया। कामता प्रसाद गुरु‘ का व्याकरण ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ काशी द्वारा आरम्भ किया गया था। सभा ने व्याकरण लेखन का कार्य गुरु को सौंपा तथा संशोधन हेतु एक समिति का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा सदस्य थे-साहित्याचार्य राम अवतार शर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,लज्जाशंकर झा, रामनारायण मिश्र, बाबू जगन्नाथ रलाकर, बाबू श्याम सुन्दर दास तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
सन् 1943 में किशोरी दास वाजपेयी द्वारा लिखित बृज भाषा का व्याकरण प्रकाशित हुआ। यह ब्रजभाषा‘ में प्रकाशित प्रथम व्यवस्थित व्याकरण था। साथ ही इसमें कामता प्रसाद गुरु‘ के व्याकरण में मौजूद कुछ दोषों को भी इंगित किया गया था। अत: केवल किशोरीदास वाजपेयी द्वारा लिखित व्याकरण ही एकमात्र रचना है। कामता प्रसाद गुरू का व्याकरण लगभग तीन दशक तक हिन्दी लेखकों का आदर्श रहा।

5. नव चेतना काल (1944 से वर्तमान तक)

श्री किशोरीदास वाजपेयी द्वारा रचित हिन्दी व्याकरण के प्रकाशित होते ही (ब्रजभाषा) इस क्षेत्र में नव चेतना आरम्भ गयी। श्री किशोरीदास ने कामता प्रसाद के व्याकरण ग्रंथ की कमियों को दूर करते हुये हिन्दी व्याकरण को सुव्यवस्थित, आधुनिक तथा वैज्ञानिक रूप प्रदान किया।

इसके बाद वाजपेयी जी ने अच्छी हिन्दी का नमूना (1948), ब्रजभाषा का प्रथम व्याकरण (1949) प्रकाशित किया। सन् 1958 में उनका हिन्दी शब्दानुशासन प्रकाशित हुआ और इसी के साथ वह इस रचना को हिन्दी व्याकरण संसार में एक नए युग के रूप में स्वीकार किया गया।

इस काल में हिन्दी व्याकरण के क्षेत्र में कार्य करने वाले विद्वानों में डा. आर्येन्द्र शर्मा, दुनीचन्द्र, डा. भोलानाथ तिवारी, डा. दीमशित्स आदि थे। इस क्षेत्र में अनेक शोध ग्रन्थ लिखे गये। जैसे–’हिन्दी कारकों का विकास‘ (डा. शिवनाथ), ‘हिन्दी भाषा का ध्वनि मूलक अनुसंधान‘ (डा. नानक शरण) निगम (1959), हिन्दी में प्रत्यय विचार (डा. मुरारीलाल उप्रेती 1961), ‘ब्रजभाषा और खड़ी बोली के इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन (डा. गँदा लाल शर्मा) 1965, ‘हिन्दी समास रचना का अध्ययन‘ (डा. रमेश चन्द्र जैन) 1971, तथा ‘हिन्दी भाषा में अक्षर तथा शब्द की सीमा’ (डा. कैलाश चन्द्र भाटिया) 1971 । हिन्दी विद्वानों की वर्तमान रुचि इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी व्याकरण का भविष्य सम्भावनाओं से पूर्ण है।

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