संधारित्र क्या है, संधारित्र की धारिता, संधारित्र का सिद्धान्त

संधारित्र क्या है

संधारित्र एक ऐसा समायोजन है जिसमें किसी चालक के आकार में परिवर्तन किये बिना उस पर आवेश की पर्याप्त मात्रा संचित की जा सकती है। माना कि किसी चालक को q आवेश देने पर उसका वैद्युत विभव V हो जाता है तब चालक की धारिता
C = q / V

यदि हम किसी प्रकार चालक के विभव को कम कर दें तो उसे पुन: उसी विभव V तक लाने के लिये और अधिक आवेश दिया जा सकता है। इस प्रकार चालक की धारिता (C) बढ़ जायेगी।

संधारित्र का सिद्धान्त

इसका सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि जब किसी आवेशित चालक के समीप एक अन्य अनावेशित चालक रख दिया जाता है तो आवेशित चालक का विभव कम हो जाता है। यदि अनावेशित चालक पृथ्वी से जोड़ दें तो विभव और भी कम हो जाता है। इसके फलस्वरूप आवेशित चालक की धारिता में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है। चित्र 3 में A धातु की प्लेट है, जो विद्युतरोधी (insulated) स्टैण्ड पर लगी है।

संधारित्र क्या है

इसे किसी वैद्युत मशीन द्वारा धन-आवेश दिया गया है। इसका सम्बन्ध स्वर्णपत्र विद्युतदर्शी की चकती से कर देने पर पत्तियाँ फैल जाती हैं। पत्तियों का फैलाव प्लेट A के विभव A को नापता है। जब प्लेट A के समीप एक अन्य धातु की प्लेट B, जो विद्युतरोधी स्टैण्ड पर लगी है, लायी जाती है तो पत्तियों का फैलाव कुछ कम हो जाता है अर्थात् प्लेट A का विभव घट जाता है।

इसका कारण यह है कि प्लेट B को प्लेट A के समीप लाने पर प्रेरण द्वारा प्लेट B के सामने वाले तल पर ऋण आवेश तथा पीछे वाले तल पर उतना ही धन-आवेश उत्पन्न हो जाता है । चित्र 3 (a)]। प्लेट B का ऋण-आवेश प्लेट A के विभव को कम करने का प्रयत्न करता है जबकि इसका धन-आवेश उसे बढ़ाने का प्रयत्न करता है।

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A यद्यपि प्लेट B पर धन तथा ऋण-आवेशों की मात्राएँ बराबर हैं परन्तु ऋण-आवेश प्लेट A के अधिक निकट होने के कारण धन आवेश की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालता है। अत: प्लेट A का विभव थोड़ा-सा कम हो जाता है। प्लेट A को फिर उतने ही विभव तक लाने के लिये इसे और आवेश दिया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि प्लेट B की उपस्थिति के कारण प्लेट A की वैद्युत धारिता बढ़ जाती है।

अब यदि प्लेट B को पृथ्वी से जोड़ दें तो पत्तियों का फैलाव और कम हो जाता है अर्थात् प्लेट A का विभव और घट जाता है [चित्र 3 (b)]। इसका कारण यह है कि पृथ्वी से जोड़ने पर प्लेट B का धन-आवेश पृथ्वी से आने वाले इलेक्ट्रॉनों से निरावेशित हो जाता है परन्तु ऋण-आवेश (भीतरी सतह पर) प्लेट A के धन-आवेश के कारण वहीं बना रहता है।

प्लेट B पर धन-आवेश के न रहने के कारण अब प्लेट A का विभव पहले से बहुत कम हो जाता है। अत: प्लेट A को पहले के बराबर विभव तक लाने के लिए इसे और अधिक आवेश दिया जा सकता है अर्थात् प्लेट A की धारिता और अधिक बढ़ जाती है। इससे स्पष्ट है कि आवेशित चालक की धारिता, उसके समीप पृथ्वी से सम्बन्धित दूसरा चालक लाकर काफी बढ़ाई जा सकती है।

यह समायोजन ही जिस पर पर्याप्त आवेश एकत्रित किया जा सकता है, ‘संधारित्र‘ (capacitor) कहलाता है। वास्तव में, संधारित्र किसी भी आकार के दो ऐसे चालकों का युग्म है, जो कि एक-दूसरे के समीप हों तथा जिन पर बराबर व विपरीत आवेश हों। इन चालकों को संधारित्र की ‘प्लेटें‘ कहते हैं।

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संधारित्र की धारिता

यदि किसी संधारित्र की प्लेटों पर आवेश + q व -q हों तथा उनके बीच विभवान्तर V हो तब संधारित्र की धारिता
C = q / V

इस प्रकार, किसी संधारित्र की धारिता संधारित्र की एक प्लेट को दिये गये आवेश तथा दोनों प्लेटों के बीच उत्पन्न विभवान्तर के अनुपात को कहते हैं। वास्तव में, प्रत्येक चालक (conductor) को एक ऐसा संधारित्र माना जा सकता है जिसकी दूसरी प्लेट अनन्त पर है।

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